Saturday, 26 September 2020

इस पार - उस पार

 

इस पार

एक पिता, 

पीठ झुकी, चेहरे पर झूरी

माथे पर शिकन, 

हाथ में कुछ कागज़ लिए

भाव भरी आँखों से 

 

देखे ..

उस पार

उम्मीद, 

प्रगति

 

इस पार

व्याकुलताअनिश्चित्ता

वर्त्तमान की चिंता

उस पार

मुस्कुराता, सुनहरा सा

भविष्य पनपता

 

इस पार

धैर्यसंयम और

एक ढृढ़ संकल्प

उस पार

श्रुति, स्मृति

समय, स्थिति

 

दोनों ओर

निरन्तर

सृजन की शक्ति

 

आपकी अमृता

छब्बीस सितम्बर दो हज़ार बीस


Saturday, 19 September 2020

वस्तुस्थिति

 







उलझन हीं सुलझन है

विचलित हीं स्थिरता


परिवर्तन हीं प्रगति है

प्रश्न हीं उन्नति 

 

भटकना हीं दिशा है

तलाश हीं प्राप्ति

 

विध्वंस हीं उत्त्पत्ति है

बहिष्कार हीं स्वीकृति 

 

वस्तुस्थिति में व्याकुलता आवश्यक है

भ्रम से मुक्ति के लिए  

 

उल्लंघन अनिवार्य है

नए नियम की स्थापना के लिए

नए वर्तमान के निर्माण के लिए

 

आपकी अमृता

उन्नीस सितम्बर दो हज़ार बीस

 

Friday, 11 September 2020

घर का कैक्टस


 







कौन छुए

कौन गुथे

कौन देख देख

मन मन भरमाए

 

कौन रोपे

कौन सींचे

कौन गाहे

धीमे धीमे बतियाए

 

कौन आकर्षण

कौन आकर्षित

समय की अद्भुत सृष्टि

 

क्या अनुकूल

क्या प्रतिकूल

अकेले

एक कोने

जूझा

झेला

आँधी और

तीव्र गति

 

फिरभी … सदैव

अडिग

कठोर

ना हुआ

टस से मस

एकमात्र

घर का कैक्टस

 

आपकी अमृता

बारह सितम्बर दो हज़ार बीस

Friday, 4 September 2020

धप्पा !

 

लुक्का छिप्पी, आँख मिचौली

घर घर, आँगन आँगन, कभी जीने पर, कभी गलियों में

कभी मिल जाये, तब भी आँखें मूँदें झूठ मूठ दिखाएँ

कभी ना मिले तो ज़ोर से आवाज़ लगायें

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

सारा दिन, माँ के आगे पीछे 

पिता के साथ अक्सर सुबह-सुबह आँखें मीचे-मीचे

इठलाती, इतराती, झूमती, उछलती, खेलती

आँखों पर माँ की ओढ़नी बाँध, गलियों में घूमती,

आस पड़ोस में भी, कभी कभी दौड़ कर चली जाती

फिर माँ ज़ोर से आवाज़ लगाती

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

प्यारी निम्मी बिटिया, की दो प्यारी आँखें

नन्हें नन्हें पाओं, और कोमल-कोमल हाथें

बिलकुल मोम सी नर्म, और रसगुल्ले सी हँसी

पूरे मोहल्ले की सबसे प्यारी बेटी,

अक्सर दादी उसे तितली है पुकारती


कल निम्मी खेलते खेलते, गलियों से अचानक सड़क पर जा पहुँची

लुक्का - छिप्पी का खेल था, उसने आँखों को दोनों हाथोँ से ज़ोर से मूँद ली

खेल में चालाकी नहीं करती, सीधी और सच्ची निम्मी

 

एक बोरवेल था सौ फ़ीट गहरा,

आँखें मीची थी ना, निम्मी ने देखा हीं नहीं

धप से जा गिरी, बोरवेल खुला हुआ था ना

प्रशाशन ने कुछ निर्देश लिखे थे, पर निम्मी लापरवाह, पढ़ी हीं नहीं

पढ़ती भी कैसे आँखों पर पट्टी जो बंधी थी  

अब पूरा जिला प्रशाशन लगा है

प्यारी निम्मी बिटिया को ढूँढने में

लुक्का छिप्पी का खेल हीं होगा शायद,

लाख ढूंढने पर भी, निम्मी मिली हीं नहीं

 

एक महीने हो गए इस बात को,

फिर भी रोज़ सुबह निम्मी के पिता, जाते हैं उसी बोरवेल पर

नीचे झुक कर देखते हैं, एक टॉर्च लेकर

फिर ज़ोर-ज़ोर से चीख़ते हैं

निम्मी बिटिया, धप्पा

निम्मी बिटिया, धप्पा ….

फिर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

आपकी अमृता

पाँच सितम्बर दो हज़ार बीस