लुक्का
छिप्पी, आँख मिचौली
घर घर, आँगन आँगन,
कभी जीने पर, कभी
गलियों में
कभी
मिल जाये, तब भी आँखें
मूँदें झूठ मूठ
दिखाएँ
कभी
ना मिले तो ज़ोर
से आवाज़ लगायें
अरे!
सुनो, किसी ने निम्मी
बिटिया को देखा क्या?
सारा
दिन, माँ के आगे
पीछे
पिता
के साथ अक्सर सुबह-सुबह आँखें मीचे-मीचे
इठलाती,
इतराती, झूमती, उछलती, खेलती
आँखों
पर माँ की ओढ़नी
बाँध, गलियों में घूमती,
आस पड़ोस में भी,
कभी कभी दौड़ कर
चली जाती
फिर
माँ ज़ोर से आवाज़
लगाती
अरे!
सुनो, किसी ने निम्मी
बिटिया को देखा क्या?
प्यारी
निम्मी बिटिया, की दो प्यारी
आँखें
नन्हें
नन्हें पाओं, और कोमल-कोमल
हाथें
बिलकुल
मोम सी नर्म, और
रसगुल्ले सी हँसी
पूरे
मोहल्ले की सबसे प्यारी
बेटी,
अक्सर
दादी उसे तितली है
पुकारती
कल निम्मी खेलते खेलते, गलियों से अचानक सड़क
पर जा पहुँची
लुक्का
- छिप्पी का खेल था,
उसने आँखों को दोनों हाथोँ
से ज़ोर से मूँद
ली
खेल
में चालाकी नहीं करती, सीधी
और सच्ची निम्मी
एक बोरवेल था सौ फ़ीट
गहरा,
आँखें
मीची थी ना, निम्मी
ने देखा हीं नहीं
धप से जा गिरी,
बोरवेल खुला हुआ था
ना
प्रशाशन
ने कुछ निर्देश लिखे
थे, पर निम्मी लापरवाह,
पढ़ी हीं नहीं
पढ़ती
भी कैसे आँखों पर
पट्टी जो बंधी थी
अब पूरा जिला प्रशाशन
लगा है,
प्यारी निम्मी
बिटिया को ढूँढने में
लुक्का
छिप्पी का खेल हीं
होगा शायद,
लाख
ढूंढने पर भी, निम्मी
मिली हीं नहीं
एक महीने हो गए इस
बात को,
फिर
भी रोज़ सुबह निम्मी
के पिता, जाते हैं उसी
बोरवेल पर
नीचे
झुक कर देखते हैं,
एक टॉर्च लेकर
फिर
ज़ोर-ज़ोर से चीख़ते हैं
निम्मी
बिटिया, धप्पा …
निम्मी
बिटिया, धप्पा ….
फिर
ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं …
अरे!
सुनो, किसी ने निम्मी
बिटिया को देखा क्या?
आपकी
अमृता
पाँच
सितम्बर दो हज़ार बीस