Tuesday, 13 October 2020

अभ्रक की चमक



PIC COURTSEY PHOTOGRAPHED BY JACK PEARCE

जब

नन्हें क़दम द्रुत गति में बढ़ते हरदम

कोमल उँगलियाँ सदमें में डूबी घुस जायें

अँधेरी खदानों में, और

सवेरा रोज़ दम तोड़े,

कुछ चुनते, कुछ ढूँढ़ते

कुछ छू छू के टटोलते

फिर सवाल उठते है ज़ेहन में

क्या है यह और क्यों है यह ?


जब

बड़े बड़े खदानों के तले,

सुनहरे सपने धूल मिट्टी में सने

कभी जाने अनजाने सिसकियाँ ले

कभी औंधे हीं दब जाए

कुछ छूट जाए, कुछ टूट जाए

कुछ-कुछ, कभी-कभी

अभ्रक की चमक में विलीन हो जाए

फिर सवाल उठते है ज़ेहन में

क्या है यह और क्यों है यह ?

 

जब

आशा की दूकान में, शिक्षा का एक सामान न मिले

उन नन्हें क़दमों के लिए खेल का एक मैदान न मिले


तब

क्या है यह और क्यों है यह

पूछ कर क्या हासिल होगा ?

जो है उसको ठीक से देखो

क्या हीं क्यों में तब्दील होगा। 


मेरे नन्हें साथी,

जाओ ….

खादानों में कहीं खो जाओ

देखो तुम्हारे बचपन के लिए

कोई नियम नहीं, क़ानून नहीं

तुम्हारी नीलाम ज़िन्दगी के लाखों खरीददार मर गए।

कुछ उन्हीं झुर्रियों से आज भी जद्दोजेहद किए हुए 

कुछ चेहरे तस्वीर से दीवारों पर टंगे हुए


हर एक चेहरे पर आज भी

तुम्हारे अभ्रक की लौ जगमगाती हैं

हर एक चेहरे पर सदा के लिए

तुम्हारे रूह का निशान रह गया।


आपकी अमृता

चौदह अक्टूबर दो हज़ार बीस

This poem is dedicated to the kids of Koderma, Jharkhand. 

Mica is a natural mineral that, once processed, provides shimmer to makeup, toothpaste, car paint, and many other products.

It's estimated that 22,000 children work in mica mines in the East Indian states of Jharkhand and Bihar.

https://www.youtube.com/watch?v=IeR-h9C2fgc&feature=emb_logo 

Saturday, 26 September 2020

इस पार - उस पार

 

इस पार

एक पिता, 

पीठ झुकी, चेहरे पर झूरी

माथे पर शिकन, 

हाथ में कुछ कागज़ लिए

भाव भरी आँखों से 

 

देखे ..

उस पार

उम्मीद, 

प्रगति

 

इस पार

व्याकुलताअनिश्चित्ता

वर्त्तमान की चिंता

उस पार

मुस्कुराता, सुनहरा सा

भविष्य पनपता

 

इस पार

धैर्यसंयम और

एक ढृढ़ संकल्प

उस पार

श्रुति, स्मृति

समय, स्थिति

 

दोनों ओर

निरन्तर

सृजन की शक्ति

 

आपकी अमृता

छब्बीस सितम्बर दो हज़ार बीस


Saturday, 19 September 2020

वस्तुस्थिति

 







उलझन हीं सुलझन है

विचलित हीं स्थिरता


परिवर्तन हीं प्रगति है

प्रश्न हीं उन्नति 

 

भटकना हीं दिशा है

तलाश हीं प्राप्ति

 

विध्वंस हीं उत्त्पत्ति है

बहिष्कार हीं स्वीकृति 

 

वस्तुस्थिति में व्याकुलता आवश्यक है

भ्रम से मुक्ति के लिए  

 

उल्लंघन अनिवार्य है

नए नियम की स्थापना के लिए

नए वर्तमान के निर्माण के लिए

 

आपकी अमृता

उन्नीस सितम्बर दो हज़ार बीस

 

Friday, 11 September 2020

घर का कैक्टस


 







कौन छुए

कौन गुथे

कौन देख देख

मन मन भरमाए

 

कौन रोपे

कौन सींचे

कौन गाहे

धीमे धीमे बतियाए

 

कौन आकर्षण

कौन आकर्षित

समय की अद्भुत सृष्टि

 

क्या अनुकूल

क्या प्रतिकूल

अकेले

एक कोने

जूझा

झेला

आँधी और

तीव्र गति

 

फिरभी … सदैव

अडिग

कठोर

ना हुआ

टस से मस

एकमात्र

घर का कैक्टस

 

आपकी अमृता

बारह सितम्बर दो हज़ार बीस

Friday, 4 September 2020

धप्पा !

 

लुक्का छिप्पी, आँख मिचौली

घर घर, आँगन आँगन, कभी जीने पर, कभी गलियों में

कभी मिल जाये, तब भी आँखें मूँदें झूठ मूठ दिखाएँ

कभी ना मिले तो ज़ोर से आवाज़ लगायें

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

सारा दिन, माँ के आगे पीछे 

पिता के साथ अक्सर सुबह-सुबह आँखें मीचे-मीचे

इठलाती, इतराती, झूमती, उछलती, खेलती

आँखों पर माँ की ओढ़नी बाँध, गलियों में घूमती,

आस पड़ोस में भी, कभी कभी दौड़ कर चली जाती

फिर माँ ज़ोर से आवाज़ लगाती

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

प्यारी निम्मी बिटिया, की दो प्यारी आँखें

नन्हें नन्हें पाओं, और कोमल-कोमल हाथें

बिलकुल मोम सी नर्म, और रसगुल्ले सी हँसी

पूरे मोहल्ले की सबसे प्यारी बेटी,

अक्सर दादी उसे तितली है पुकारती


कल निम्मी खेलते खेलते, गलियों से अचानक सड़क पर जा पहुँची

लुक्का - छिप्पी का खेल था, उसने आँखों को दोनों हाथोँ से ज़ोर से मूँद ली

खेल में चालाकी नहीं करती, सीधी और सच्ची निम्मी

 

एक बोरवेल था सौ फ़ीट गहरा,

आँखें मीची थी ना, निम्मी ने देखा हीं नहीं

धप से जा गिरी, बोरवेल खुला हुआ था ना

प्रशाशन ने कुछ निर्देश लिखे थे, पर निम्मी लापरवाह, पढ़ी हीं नहीं

पढ़ती भी कैसे आँखों पर पट्टी जो बंधी थी  

अब पूरा जिला प्रशाशन लगा है

प्यारी निम्मी बिटिया को ढूँढने में

लुक्का छिप्पी का खेल हीं होगा शायद,

लाख ढूंढने पर भी, निम्मी मिली हीं नहीं

 

एक महीने हो गए इस बात को,

फिर भी रोज़ सुबह निम्मी के पिता, जाते हैं उसी बोरवेल पर

नीचे झुक कर देखते हैं, एक टॉर्च लेकर

फिर ज़ोर-ज़ोर से चीख़ते हैं

निम्मी बिटिया, धप्पा

निम्मी बिटिया, धप्पा ….

फिर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं

अरे! सुनो, किसी ने निम्मी बिटिया को देखा क्या?

 

आपकी अमृता

पाँच सितम्बर दो हज़ार बीस


Saturday, 29 August 2020

धोबी और मेंढ़क


Pic Credit - Tower of Babel, 1999; Ink on paper (Private collection) WONG SHIH YAW, ABRAHAM 


रोज़ मिलते थे सुबह और शाम कुँए पर

धोबी कुछ अपनी सुनाता, कुछ मेंढक अपनी टरटराता 

कभी रोज की समस्या और बढ़ती महँगाई

कभी काम की चर्चा और घटती कमाई


धोबी एक दिन कहा

"अरे मेंढक भाई दो रुपए में ना होवे पोशाई

मेंढ़क हाज़िर जवाबी, बोला

“धोबी यार दो का चार कर लो ..

क्या तुम भी मेरी तरह, छोटी छोटी बातों में, ख़ामख़ा टरटराते हो?"


धोबी असमंजस में था सोचने लगा ..

"यह लोग जो रोज़ कपड़े धुलवाते हैं, क्या दे पाएँगे दुगनी रक़म?

छोटे मोटे ईमानदार लोग, सुना है कमाते है बेहद कम"

मेंढक ने ढाँढस बंधाई ...

"कहा धोबी भाई कुआं जैसा होवे कमाई, देखे  में छोटा लगे पर होवे है इसमें गहराई

तुम फ़िज़ूल की व्याकुलता में मन हीं मन, नितदिन टरटराते हो" ...



धोबी उठ बैठ गया, मचा दिया चारो और नए रकम की धुलाई का ढिंढोरा
थोड़ी दी महंगाई की भत्ता और दिखाई थोड़ी साफ़ पानी की चिंता

जो मेंढक को लगती थी इतनी सी बात, उसने पुरे नगर में खलबली मचा दी

कानो कान मेंढक ने कल थी सुनी

कुँए पर हो गयी थी हाथापाई

अन्य धोबियों ने उसके धोबी मित्र से कर ली थी लड़ाई

मेंढक यह देख कर हक्का बक्का सा रह गया

सोचा हाय!

देने वाले को जरा ना खटका यह दो रुपये का नया नुस्खा

जिन्हें खटका वह तो अन्य धोबी के सहसा मित्र थे

जिन्हें अक्सर धोबी अपना हितैशी था समझता

अपने हीं अपनों की पीड़ा ना समझें

क्या हो सकता है, इससे बड़ा धोखा ?


मेंढक को अपने किये पर पछतावा भी हुआ और गुमान भी

बोला, "हे मित्र कुँए का मेंढ़क सिर्फ मैं ही नहीं, कुछ मेंढ़क इंसान भी

चलता हूँ मैं अब, अगर मन हो तुम भी चलो

और यह बात गाँठ बाँध लो,

कुआँ में ही रहना है, हम दोनों को

यही नियति है और यही विधान भी“….

 

आपकी अमृता

तीस अगस्त दो हज़ार बीस