धोबी कुछ अपनी सुनाता, कुछ मेंढक अपनी टरटराता
कभी रोज की
समस्या और बढ़ती महँगाई
कभी काम की चर्चा और घटती कमाई
धोबी एक
दिन कहा
"अरे ओ
मेंढक भाई दो रुपए में ना होवे पोशाई”
मेंढ़क हाज़िर जवाबी, बोला
“धोबी यार दो का चार कर लो ..
क्या तुम भी मेरी तरह, छोटी छोटी बातों में, ख़ामख़ा टरटराते हो?"
"यह
लोग जो रोज़ कपड़े धुलवाते हैं, क्या दे पाएँगे दुगनी रक़म?
छोटे मोटे ईमानदार लोग, सुना है
कमाते है बेहद कम"
मेंढक ने
ढाँढस बंधाई ...
"कहा धोबी भाई कुआं जैसा होवे कमाई, देखे में छोटा लगे पर होवे है इसमें गहराई
तुम फ़िज़ूल की व्याकुलता में मन हीं मन, नितदिन टरटराते हो" ...
जो
मेंढक को लगती थी इतनी सी बात, उसने पुरे नगर में खलबली मचा दी
कानो कान मेंढक ने
कल थी सुनी
कुँए पर
हो गयी थी हाथापाई
सोचा हाय!
देने वाले को
जरा ना खटका यह दो रुपये का नया नुस्खा
जिन्हें खटका वह
तो अन्य धोबी के सहसा मित्र थे
जिन्हें अक्सर धोबी अपना हितैशी था
समझता
अपने हीं अपनों की
पीड़ा ना समझें
क्या हो
सकता है, इससे बड़ा धोखा ?
बोला,
"हे मित्र कुँए का मेंढ़क
सिर्फ मैं ही नहीं,
कुछ मेंढ़क इंसान भी
चलता
हूँ मैं अब, अगर
मन हो तुम भी
चलो
और
यह बात गाँठ बाँध
लो,
कुआँ
में ही रहना है,
हम दोनों को
यही
नियति है और यही
विधान भी“….
आपकी
अमृता
तीस अगस्त दो हज़ार बीस
NICE Story
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