Pic Credit: https://barnimages.com/tunnel-and-people-silhouettes/
मन के सुरंग
यूँ
हर दिन के बाद
आ जाती है
एक और रात
अँधेरी,
सुनसान
वीरान
सी
नितान्त
अकेली
ना दोस्त
ना कोई सहेली
हर रात यूँही जागती
ना जाने रात
क्या
रात भर है सोचा
करती
कुछ
ढूंढ़ती
तलाश
करती
एक सुरंग है दीखता
कुछ
काला काला
सौ-सौ सीढ़ियों वाला
नंगे
पैर, तेज भागती
मुट्ठी
में चार और आठ
आने का
एक सिक्का है
सुरंग
में कुछ दुकानें है
कुछ
खुले, कुछ आधे बंद
कुछ
लोग कुछ बेचते
कुछ
मोलते तोलते
कुछ
खरीद लेते
कुछ
यूँही छोड़ देते
सुरंग
में एक कुआँ है
खुला
हुआ
झुक
के देखा
पानी
नहीं था
सुख
गया होगा
कुछ
चीज़ें दिखी गिरी हुई
एक खिलौना था मेरा पसन्दीदा
सुरंग
में काई जमी है
पैर
फिसलते है
संभल
कर खड़ी क्यों नहीं
हो पा रही हूँ मैं ?
सुरंग
में एक गहरी खाई
भी है
खाई
रेत से भरी
एक झाड़ू की सिक्की
भी मिली
कुछ
यूँही लिखा था रेत
पर
लिखा
मिट गया
निशान
बस रह गया। ....
अब फिर इस दिन
के भी
ख़तम
होने का इंतज़ार रहेगा
रात
फिर आएगी,
चुपके
से
ऑंखें
मूँदें, छिप - छिप के
एक और सुरंग फिर
दिखेगा
इस बार काला नहीं
उजला
सा
चिलमिलाता
चैंधियाता
और खींच लेगा मुझे
फिर
अपनी ओर
आप भी जागते हैं
क्या, कभी कभी ?
मन के सुरंग में
आपको
क्या है दिखता ?
कुछ
चलता है या आपके
लिए भी
सब कुछ है रुका
हुआ
वक़्त
बिताया कीजिये
उस सुरंग में कभी कभी
सुना
है सुरंगों में
जीवन
की खोयी कुँजी है
मिलती
अँधेरा
और उजाला
सच पूछिए तो
बस आँखों का वहम हीं
तो है
शायद
सुरंग हीं, आप का
- आपसे पहुँचने का
एक मात्र माध्यम हो ?
आपकी
अमृता
आठ अगस्त दो हज़ार बीस
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