Friday, 31 July 2020

माँ तुमसे था पूछना …



माँ तुमसे था पूछना …

 

हमेशा घर में जो रंग बिरंगे फूल खिलखिलाते

उन फूलों के रंग घर भर में बिखेरती

फूलों जैसी रंग बिरंगी, माँ वह फूल तुम्ही थी ना ?

 

हमेशा फूल को ऊँगली मोर कर थी दिखाती

उसके टूट ना जाने की चिंता में, हर फूल की एक - एक पंखुडी सम्भालती

वह पंखुड़ी सी नाजुक, माँ वह पंखुड़ी तुम्ही थी ना ?

 

दोपहर की बारिश में

छाता खोलकर बस स्टॉप से घर तक लाती

खुद भीग कर मुझे बचाती

वह बारिश और छतरी, माँ वह तुम हीं थी ना ?

 

जहाँ जाती अपनी छाप छोड़ जाती

मेहँदी, बिंदी, चूड़ी

पायल की घुंघरू, और फूलों की खुसबू

वह सब, माँ तुम हीं थी ना ?

 

मेरे परीक्षा में मुझसे कम सोती

गरम दूध और रात के दो बजे आलू पराठे बनाती

मेरे सारी काली रातों की भोर, वह माँ तुम्ही थी ना ?

 

एक घंटे लाइन में लग कर

सिनेमा घर में सिनेमा दिखाती

और आते वक़्त रिक्शे के पैसे जोड़ती

वह हर ज़िद पूरा करती, वह माँ तुम्ही थी ना ?

 

साइंस प्रोजेक्ट में आड़े तेरे

आकार के जीव जंतु बनाती

पहली मिटाती फिर थोड़ा हंस कर

एक और अनोखी जीव जंतु बनाती, वह हँसी - ठिठोली, माँ वह तुम्ही थी ना ?

 

हर वक़्त गरम खाना खिलाने के लिए

मेरी आने की बाट जोहती 

वह दाल चावल और गरम - गरम सब्जी - रोटी, वह माँ तुम्ही थी ना ?

 

हर मेरे बर्थडे को त्योहार जैसा मनाती

खुद पुराने कपड़े में लिपटी मुझे हर बार नई फ़्रॉक पहनाती

वह अनन्त आकाँक्षाओं से भरी, माँ तुम्ही थी ना ?

 

पापा के गुस्से को

हँसी की फुहार बना उड़ा देती

वह आँखों के निर्झर आँसूं और होठों की दबी मुस्कान, वह माँ तुम्ही थी ना ?

 

कभी यूँही रसोई में अकेले

मसाला भुजते रो दिया करती

कुछ पूछने पर

फिर सब्जी भुजने का झांसा दे दिया करती, मुझे तरह तरह से फुसलाती, माँ वह तुम्ही थी ना ?

 

मेरी घर गृहस्ती के बोझ को फूलों से फिर सजाती 

हर जरुरत को अपनी जिम्मेदारी बनाती,

वह सहज सोच को, नानी बन फिर उमंग से उठाती, वह अनन्त प्रेम से भरी महासागर माँ तुम हीं थी ना ?

 

माँ बनी जब मैं, अक्सर यह सोचती

माँ बनने के पहले हीं, दुनिया मेरी ठीक थी

स्वछंद थी, मन मौजी

अपनी मर्ज़ी से जीती और अपनी मर्ज़ी से घूमती

क्या यह रोज़ रोज़ के टंटों में, हर घड़ी मैं फँसी हूँ रहती ?

 

फिर जीवन की मेरी सुई, अटकती है घड़ी घड़ी

हर बार तुम्हीं पर जाकर

माँ बनने के बाद हीं, आता है माँ का अर्थ निखर

देखती हूँ जीवन की बुनियाद तो माँ से हीं है,

सारे जीवन का ज्ञान माँ में हीं है

पर सब ज्ञान - विज्ञान तो ठीक है संसार को दिखाने के लिए

यह खेल है समाज का पुराना

समझ कर भी ना समझाना

क्यूँकि ,

माँ बनने का जिम्मा, मुश्किल है निभाना। 

 

माँ एक सवाल था जाते जाते पूछना

जब तुम माँ नहीं बनी थी, तब तुम्हें क्या था बनना ?

क्या था तुम्हारा पसंदीदा रंग ? [ नहीं नहीं , आसमानी तो पापा की पसंद था माँ। .. ]

क्या थे तुम्हारे सपने ?

चुप क्यों हो, कुछ कहो ना माँ

फिर तितली बन उड़ जाओ ना माँ

यह देखो ना खुला है, पूरा आसमाँ

तुम्हारे रंग बिरंगे पँखों की परवाज़

एक बार मुझे भी देखनी है माँ

और इस हौसले की सारी शर्तें मुझे मंजूर है माँ।

आओ ना छू लें, चलो माँ तुम्हारा आसमाँ

मैं खिलाओँ तुम्हें गरम रोटियाँ, तुम सपने तो बुनो माँ …..

 

आपकी अमृता

एक अगस्त, दो हज़ार बीस


Sunday, 26 July 2020

बातों की ज़ायदाद


बातों की ज़ायदाद 

बात बात में बात है, बात बात में बात
ज्यूँ केले के पत्ते में, पात पात में पात  
कितने मुहावरे थे सुने माँ के मुँह से
कुछ पल्ले पड़े, कुछ अधूरे समझे रह गए  

विरासत में मिली माँ से, चंद बातों की सौगात ,
गाँठ बाँध कर रख ली मैंने उनमें से कुछ बातें जीवन भर अपने साथ  
एक ऐसी हीं कही हुई माँ की बात,
जीवन में कुछ बनना या पाना हो तो सुनो बेटी,
नितदिन करो ज्यादा काम और कम से कम बात  

हूँ असमंजस में मैं माँ, और फँसी हूँ थोड़ी झूठी फ़सादों में
बिना परखे और सवाल पूछे यह कैसी हूँ हासिल,
क्यों आंसुओं से भरा होता है मंजिलों का अँजाम,
बिना बातों के किये गए सही ग़लत काम।
क्यों कर जाते हैं ज़िन्दगी तमाम ?

एक और बात,
उस दिन मैंने कानों कान थी सुनी। 
किसके मुँह से ? ये बताना जरुरी नहीं
कह गए थे वह, बातों हीं बातों में ऐसी ओछी बात,
ज़िद्दी है बहुत यह लड़की 
लातों की भूत है, बातों से कहाँ मानेगी?
हँसते- रोते खा ली थी मैंने उस रोज़, लातों भरी बात

परेशां ज़िन्दगी, विडम्बनाओं से भरी और थोड़ी अनोखी  
लातें खाते खाते विवशता में भी, रही सोचती
कैसे सुलझाऊँ इस जीवन में बातों वाली गुत्थी। 
तब उम्र थी छोटी मेरी और बातें यह बड़ी बड़ी । 

एक सवाल है मन हीं मन में, चलिए पूछती हूँ आपसे
बातों-बातों में क्यों था इतना कठिन मुझे मनवाना ?
अगर नहीं समझ पायी थी मैं, आपकी सीधी बात
आपने क्यों नहीं की कोशिश किसी और ढंग से
बताने की मुझे, वही आपकी कही बात ? यह हार तो सच में आपकी थी ?
जो एक बच्चे पर उठाना पर गया अकारण अपनी बात मनवाने के लिए आपको अपना हाथ । 

अब एक न्याय जीवन का, कुछ ऐसे दीजिये, बिना बात यूँ हीं हर बात बच्चों पे हाथ, मत उठाया कीजिये। 
प्यार से बेहला फुसला लिया कीजिये,
बच्चा हीं तो है,
जो माने फिर भी एक चॉक्लेट पकड़ा दिया कीजिये
देर सबेर हीं जाती है समझ,
हर बच्चे को समय के साथ, आपकी कही-सुनी हर बात।

दुनियानी ज़िन्दगी और उसके हज़ार झमेले, माँ के बचपन के मुहावरे जाने कब नुस्ख़े बने
कहती रहती है अक्सर, जीवन है एक लम्बा सफर
मत निकाला करो तुम हर बात की खाल, बातों को झाड़ो, झटको और सरपट आगे बढ़ो
कभी-कभी एक कान से सुनो और दूसरी से निकला भी करो
यूँ बात-बात पर बात विवाद, क्यों लगाती हो दिल से हर बात
कैसे जियोगी यह जीवन अस्सी नब्बे साल, बातें है माया जाल, बन जाते हैं जी का जंजाल ।

और भी हिदायतें थी, आखिर माँ हीं तो ठहरी
एक दिन अनायास हीं कहने लगी, क्यों जरुरी है तुम्हें कहना हमेशा सच्ची बात
कर्वी दवाई है लगती, मुझे तुम्हारी सौ बातों की एक बात
संछिप्त में साफ़ साफ़ क्यों नहीं कह पाती, तुम अपने मन की बात ?

मैंने कुछ मन ही मन दोहराया
वह हिन्दी की कक्षा में, क्यों फिर टीचर ने सबके सामने यह था कहा
पूरी बात समझाने में तुम तो उस्ताद हो, अमृता ।
बस उस टीचर का इतना एहसान मुझ पर रह गया,
सन्दर्भ - प्रसंग - व्याख्यान, का पूरा अंतर समझ लिया ।

अब जीवन के काम काज़ में अक्सर, बातों की ऐहतियात रखती हूँ
जब तक जरुरी ना हो कहना, चुप चाप हीं रहती हूँ। 
क्या कहेंगे और क्या समझेंगे, अब हम आप
बातों हीं बातों में कभी कबार हो जाया करती है मार काट। 

कुछ यूँ निभा ले ज़िन्दगी का सफर, बातें करें आप समय निकाल कर
काम के धुन में भी, एक बार दिन दोपहर
दो पल ठहर कर,
एक दो मीठी बातें, कह लें सहेजकर
क्या पता, आपकी बातों से कौन सा ज़ख़्म किसका भर जाये ?

यूँही हँसने बोलने की बातें मेरी 
और कभी कभी कुछ पूछने की आदतें खास
यह मेरी बातों की ज़ायदाद, अब सहेजो बेटी।
जो मिला मुझे विरासत में अब सौप दिया मैंने भी
एक दिन बातों बातों में,
यूँही अपने आप, हो जाओगी तुम भी बड़ी। 

आपकी अमृता
छब्बीस जुलाई दो हज़ार बीस

Friday, 24 July 2020

अपने हिस्से का आसमान



अपने हिस्से का आसमान

अद्भुत और विस्तार से भरा
यह नीला - नीला आसमान
रोज़ रोज़ एक ख्वाब दिखाता
चमकता दमकता आसमान।

उजली भोर, अक्षय धुप
सिंदूरी शाम और रात के
अनगिनत तारों से भरा
चकित करता आसमान।

बहुत सी हैं बातें , अधूरी बिसरी यादें
दिल को बार बार भ्रमित करता
यह काले मेघ से भरा आसमान।

वह शायद किसी और जन्म की बात थी
एक ऐसा जीवंत माहौल हुआ करता था
चंचल और कोलाहल से भरा
लाल गुलाबी पतंगे लिए
छत पर झूमता और खिलखिलाता था 
रंग बिरंगा आसमान।

एक बार की बताएं आपको मज़ेदार बात
यूँही नंगे पाँव पाँव एक दिन अकस्मात
आसमान भी उड़ चल दिया था, भई मेरे साथ
मैंने पुछा था आसमान से
काहे पड़े हो हमारे पीछे
दूपहरिया से
आसमान बोला
आजा आज चटाई पर लेट कर धूप सेकेंगे
तुम अक्सर सुस्ती काट
पसर जाती हो बात बात

याद है उस दिन आसमान तुम्हारे साथ
कितना समय था मैंने बिताया
पूरी रात टिमटिमाती तारों को कितना था मैंने सताया  
अँधेरे में एक टॉर्च लेकर तुम्हारे सारे तारों को पहले था छेड़ा फिर मनाया।
और दादी के छत पर तुमने कैसा खेला खेल नुक्का छिप्पी का
कभी अमावश्या की अँधियारी और कभी चकाचौंध जगमग पूर्णिमा सा 
तुमने तो मुझे बेवज़ह था इतना भरमाया
मेरा प्यारा सा हँसता बोलता
करतब और अठखेलियां करता
असीमित सपनों से भरा
मेरा वाला आसमान।

ज़िन्दगी एक सुनहरे स्वपन सी
बेहतर बनाने की ज़िद थी
कभी रात भर पढ़ लिख कर
सुबह ओढ़ लीया था आसमान।

शायद मेहनत की अपनी क़ीमत थी
भोले भाले माँ बाप ने यूँही मासूमीयत लिए
न्योछावर कर दिया थे हम पर
अपने उम्र भर का आसमान।

हम भी बच्चे थे ज़िद्दी
उड़ने की इतनी थी जल्दी
क्षण भर में भूला दिया
अरमानों वाला आसमान।

बना लिया एक अपना
छोटा सा आशियान
और थाम ली भारी भरकम घर गृहस्थी
किसी को क्या पड़ी की ढूंढे
अपने खोये हुए आसमान।

अब आदतन हर शाम एक अदरक वाली चाय के साथ
टकटकी लगाए देखते हैं हम बॉलकनी से चुप चाप
उन्मुक्त गगन
उड़ते पक्षियों के पर
हवाओँ की महक
और फिर
एक गहरी साँस के साथ
घुस जाया करते हैं बेमन
दो कमरे, बिना सिर पैर के
 इस स्क्वायर फ़ीट वाले फ्लैट में।

और नम आँखों से अलविदा कहता है मुझे
मेरे हिस्से वाला
दो बीत्ते का आसमान। ...

आपकी अमृता

चौबीस जुलाई दो हज़ार बीस