बातों की ज़ायदाद
बात
बात में बात है,
बात बात में बात
ज्यूँ
केले के पत्ते में,
पात पात में पात
।
कितने
मुहावरे थे सुने माँ
के मुँह से
कुछ
पल्ले पड़े, कुछ अधूरे
समझे रह गए ।
विरासत
में मिली माँ से,
चंद बातों की सौगात ,
गाँठ
बाँध कर रख ली
मैंने उनमें से कुछ बातें
जीवन भर अपने साथ
।
एक ऐसी हीं कही
हुई माँ की बात,
जीवन
में कुछ बनना या
पाना हो तो सुनो
बेटी,
नितदिन
करो ज्यादा काम और कम
से कम बात ।
हूँ
असमंजस में मैं माँ, और फँसी हूँ
थोड़ी झूठी फ़सादों में
बिना
परखे और सवाल पूछे
यह कैसी हूँ हासिल,
क्यों
आंसुओं से भरा होता
है मंजिलों का अँजाम,
बिना
बातों के किये गए
सही ग़लत काम।
क्यों
कर जाते हैं ज़िन्दगी
तमाम ?
एक और बात,
उस दिन मैंने कानों
कान थी सुनी।
किसके
मुँह से ? ये बताना
जरुरी नहीं
कह गए थे वह,
बातों हीं बातों में
ऐसी ओछी बात,
ज़िद्दी
है बहुत यह लड़की
लातों
की भूत है, बातों
से कहाँ मानेगी?
हँसते-
रोते खा ली थी
मैंने उस रोज़, लातों
भरी बात
परेशां
ज़िन्दगी, विडम्बनाओं से भरी और
थोड़ी अनोखी ।
लातें
खाते खाते विवशता में
भी, रही सोचती
कैसे
सुलझाऊँ इस जीवन में
बातों वाली गुत्थी।
तब उम्र थी छोटी
मेरी और बातें यह
बड़ी बड़ी ।
एक सवाल है मन
हीं मन में, चलिए
पूछती हूँ आपसे
बातों-बातों में क्यों था
इतना कठिन मुझे मनवाना
?
अगर
नहीं समझ पायी थी
मैं, आपकी सीधी बात
आपने
क्यों नहीं की कोशिश
किसी और ढंग से
बताने
की मुझे, वही आपकी कही
बात ? यह हार तो सच
में आपकी थी न
?
जो एक बच्चे पर
उठाना पर गया अकारण
अपनी बात मनवाने के
लिए आपको अपना हाथ
।
अब एक न्याय जीवन
का, कुछ ऐसे दीजिये,
बिना बात यूँ हीं
हर बात बच्चों पे
हाथ, मत उठाया कीजिये।
प्यार
से बेहला फुसला लिया कीजिये,
बच्चा
हीं तो है,
जो न माने फिर
भी एक चॉक्लेट पकड़ा
दिया कीजिये
देर
सबेर आ हीं जाती
है समझ,
हर बच्चे को समय के
साथ, आपकी कही-सुनी
हर बात।
दुनियानी
ज़िन्दगी और उसके हज़ार
झमेले, माँ के बचपन
के मुहावरे जाने कब नुस्ख़े
बने
कहती
रहती है अक्सर, जीवन
है एक लम्बा सफर
मत निकाला करो तुम हर
बात की खाल, बातों
को झाड़ो, झटको और सरपट
आगे बढ़ो
कभी-कभी एक कान
से सुनो और दूसरी
से निकला भी करो
यूँ बात-बात
पर बात विवाद, क्यों लगाती हो दिल से हर बात
कैसे जियोगी
यह जीवन अस्सी नब्बे साल, बातें है माया जाल, बन जाते हैं जी का जंजाल ।
और भी हिदायतें थी,
आखिर माँ हीं तो
ठहरी
एक दिन अनायास हीं
कहने लगी, क्यों जरुरी
है तुम्हें कहना हमेशा सच्ची
बात
कर्वी
दवाई है लगती, मुझे
तुम्हारी सौ बातों की
एक बात
संछिप्त
में साफ़ साफ़ क्यों
नहीं कह पाती, तुम
अपने मन की बात
?
मैंने
कुछ मन ही मन
दोहराया
वह हिन्दी की कक्षा में,
क्यों फिर टीचर ने
सबके सामने यह था कहा
पूरी
बात समझाने में तुम तो
उस्ताद हो, अमृता ।
बस उस टीचर का
इतना एहसान मुझ पर रह
गया,
सन्दर्भ
- प्रसंग - व्याख्यान, का पूरा अंतर
समझ लिया ।
अब जीवन के काम
काज़ में अक्सर, बातों
की ऐहतियात रखती हूँ
जब तक जरुरी ना
हो कहना, चुप चाप हीं
रहती हूँ।
क्या
कहेंगे और क्या समझेंगे,
अब हम आप
बातों
हीं बातों में कभी कबार
हो जाया करती है
मार काट।
कुछ
यूँ निभा ले ज़िन्दगी
का सफर, बातें करें
आप समय निकाल कर
काम
के धुन में भी,
एक बार दिन दोपहर
दो पल ठहर कर,
एक दो मीठी बातें,
कह लें सहेजकर
क्या
पता, आपकी बातों से
कौन सा ज़ख़्म किसका
भर जाये ?
और कभी कभी कुछ
पूछने की आदतें खास
यह मेरी बातों की
ज़ायदाद, अब सहेजो बेटी।
जो मिला मुझे विरासत
में अब सौप दिया
मैंने भी
एक दिन बातों बातों
में,
यूँही
अपने आप, हो जाओगी
तुम भी बड़ी।
आपकी
अमृता
छब्बीस
जुलाई दो हज़ार बीस
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