Thursday, 27 February 2025

बचपन

 बचपन 

उन्मुक्त, मस्ती में घूमते 

दौड़ते, औंधे मुँह गिरते 

भागते, पेड़ों पर चढ़ जाते 

चींटी पकड़ते 

शीशी में मक्खी फँसाते 

घूमते - घामते 

पापड़ और गेहूँ सुखाते 

तड़के सुबह, कचौड़ी-जलेबी खाते 

चाँपा नल के ठंडे पानी से, पूरे जेठ नहाते 

टपकती छत के नीचे तसला रखते 

और टूटी बाल्टी में, भादो भरते 

चार- पाँच आने लिए गलियों में फिरते 

खट्टे - मीठे बेर को दाँतो तले मसलते 

फिर चौकीं के नीचे घुस जाते 

पके हुए आम एक - एक कर चुनते 

और पूरी दोपहर, आम की गुढ़ली चूसते 

कुएँ पर रखी मिट्टी से बर्तन लीपते 

और सुनहरे- रंगीन मेले में गुम हो जाते 

नानी की टूटी चूड़ियों से दीवार सजाते 

बचपन ……

हमारे टूटे मन को, चुम्बक से चिपकाते 

कभी आसरा, कभी रास्ता दे जाते 

हमें ख़ुद को ख़ुद से रोज़ बचाते


आपकी अमृता

28 फरवरी, 2025


Friday, 14 February 2025

 



Saturday, 8 February 2025

Notes from my Dreams | Time and butterflies

 Notes from my Dreams! 


Time and butterflies.


Last night, I flew to Satkhol. 

To the HWR! To the precise room where we learnt it all. 

I saw you. Each one of you. 

Deepika and Monika and Jyoti and Vranda on the table. Beaming!

Sushmita and Tanya on the Sofa! 

Leaning!

Chirantan and Ayush again on the Floor! 

Vranda at the Center and 

Anil Ji, Barkha and Agatha near the window! 

Riyaz at the corner. 

All of you Seated at the same spot. 

Ameen next to the book wall! 

It was an Immersion 2.0! 

Ameen’s Second  Workshop. 

He started with a connection act. 

Class work to write a two line Jingle. Like one of the activity from last time. He asked to sing this time and asked to attempt putting music in the lines! 

Chirantan was the first to Go! 

I …

Was …

Second 

I was All set …

And suddenly I realised,  I have forgotten my dear notebook in which I had collected all the thoughts from last time! 

I was upset and almost crying and saying how could I miss packing ‘my dear old notebook’! 

Wandering how will I now make the connection and do my 

re-vision! 

I wanted to pack up and say bye ….

And the Alarm rings 

and Reality Said Hi …

How do we catch the time and butterflies!!! 

Amrita 

Jan 20, 2024

प्यार के पंछी

 प्यार के पंछी 

उमर भर आप साथ रहें 

साथ पकायें साथ खायें 

रोज़ रात आपकी पहली रात रहे 

रोमांस में डूबी आपकी हर सुबह- शाम रहे 

कभी ना ख़त्म घर का काम रहे 

प्यार कभी राशन कभी साग- सब्जी रहे 

जो भी रहे ना रहे 

बस आप साथ रहें 

हमेशा 🥰😍❤️

तुम्हारी निकम्मी 

अमृता

आदाब

दूरी एक डायरी सी लगती है 

रोज़ कुछ लिख जाती है 

कभी कोरा मिज़ाज

कभी ख़ामोश अल्फ़ाज़

यादों के हिज़ाब 

और एक आदाब


अमृता 

19 Jan 2025

बेलिहाज़, बेहिसाब

 उफ़ ज़मीन से फ़लक तलक

बस ख़ुमारी बस शबाब

मेरे जिस्म में जलते तुम्हारे प्यार के ग़ुलाब 

बेलिहाज़, बेहिसाब


आपकी अमृता

12 January 2025

क़िस्मत की अशर्फ़ियाँ

 क़िस्मत की अशर्फ़ियाँ


ख़ाली आँखें भेजे हज़ार अर्ज़ियाँ 

फ़ुर्सत से लिखें, मुहब्बत भरी चिट्ठियाँ 


जवाँ रातों में सुलगते साँसो का कारवाँ

धूप में पिघलते, बदन की बर्फीलियाँ 


गुलज़ार नज़ारे, सात रंगों का शामियाँ 

यादों की ख़ुशबू, मखमली क्यारियाँ


वक़्त के पाँव तले दबी- दबी खामोशियाँ 

बच्चों के मुस्कान पर क़ुर्बान, क़िस्मत की अशर्फ़ियाँ


आपकी अमृता 

11 जनवरी, 2025

Witnessing Waiting ….

Witnessing Waiting ….

Wandering. Waiting

Anticipating. 

In the moment of when we meet someone ‘the one’ who has touched some part and arrived in your deepest core, possessing you with your being and you define the moment of waiting intertwined as ‘longing’.

That moment…

When the first ray of the sun shines on the horizon and the waiting of the nights are answered silently by the  ‘Mornings’

When every thinking is lingering, 

When one is not sure, if it is the right waiting? 

In the first layer of Waiting, there is wanting. 

It demands seeing and attention.

In the second layer it exerts feeling and asserts on union.

In the third layer this ‘waiting’ transforms and attains completion. 

This mystically becomes ‘waiting’ as union. 

The part which is unmet. 

Unmet and Untouched.

Can one, ever overcome ‘waiting’? 

Asks the wanderer 

The soul seeks rewards and it is through the proceedings of the heart which declares the existence of ‘meetings’ as a variable to the constant in life of ‘waiting’!

Amrita

सब्र

 ठन गई बहार की आज फिर धूप से 

रूठ गई रात फिर आरज़ू ओढ़ के 

मन रे मेरे धीर धर 

सब्र कर सब्र कर 


सूने जेवर रूखे तेवर 

पूछे आसमाँ मेरा, कहाँ छुपा है चाँद तेरा 

मन रे मेरे धीर धर 

सब्र कर सब्र कर

आपकी अमृता

साइकिल (नानाजी की याद में)

 साइकिल 

———-

एक हाथ में झोला , झोले में कुछ फल और सब्जी 


समय रोज़ रात साइकिल पर सवार हो मिलने चली आती है। 

दोनों आँखों में दो बड़े पहिए भागते- दौड़ते रहते हैं।

पुतलियाँ पैडल मारती हैं और सरसराती हवा फिर मुझे वहीं ले जाती हैं ।

एक - एक करके सारे शहर के लोग दिखते हैं 

लोग जिनके चेहरे नहीं है 

लोग जो ख़्वाब से हैं , 

लोग जो ख़ुशबू हैं 

लोग जो व्यस्त हैं और थोड़े मस्त!

बेफिक्र! से टहलते 

चश्मा लगाते और मचलते 

पता नहीं क्या ढूँढ रहें है 

पर सब कहीं जा रहें हैं 

लोग दुकान से और कुछ मकान से 

लोग बोरे में भरे राशन, और सामान से 

और कुछ लोग खाली डब्बे से 

इन हज़ार लोगों के बीच में 

सफेद गद्दी पर बैठे, सफेद धोती पहने 

मेरे प्यारे नानाजी!


मुस्कुराते और हँसते हुए कहते हैं, 

आगे बढ़ो खड़ी क्यों हो? 


एक हाथ में झोला , झोले में कुछ फल और सब्जी 


समय रोज़ रात साइकिल पर सवार हो मिलने चली आती है। 

दोनों आँखों में दो बड़े पहिए भागते- दौड़ते रहते हैं।

पुतलियाँ पैडल मारती हैं और सरसराती हवा फिर मुझे वहीं ले जाती हैं ।


आपकी अमृता 

15 दिसंबर 2024

तलाश

 तलाश 


आओ 

इन आँखों पर वक़्त कि बेड़ियाँ लगा दें 

ज़ंजीरों में जकड़ लें ख़्वाबों के समंदर 


बेख़ौफ़ सी आँखें यहाँ-वहाँ घूमती है 

आओ 

क़ैद कर लें इन्हें सलाखों में 

और पहरा लगा दें सुनसान साहिलों पर 


कल रात ग़ुस्ताख़ी से झाँका था मैंने 

आँखों के तहख़ानों में 

मिट्टी में सनी - लिपटी थी ख़ामोशी 

भटक रही थी रूह लिए 

आरज़ुओं का खंडहर 


आपकी अमृता 

15 दिसंबर 2024

सही और ग़लत

 धूप- धूप ज़िन्दगी 

छाँव- छाँव सफ़र 

एक गुल्लक़ अरमानों का 

सिक्का-सिक्का जोड़कर 

हर रात कल पर टालती 

सूखी- स्याही मेज़ पर 

सुलगती चिंगारी 

धीमें- धीमें आँच पर 

ना उम्मीद सी दरखास्त 

बेजाँ- बेज़ुबाँ चीख़े चिल्लाए 

झूठ फ़रेब की चाँदनी 

उलझे- उलझे सच के भँवर 


आपकी अमृता 

10 नवम्बर, दो हज़ार चौबीस

ज़िन्दगी

 ज़िन्दगी कभी- कभी अपना असर यूँ भी दिखाती है 

तेज रफ़्तार को सोच समझ कर धीरे 

कर जाती है 

महसूस करो 

फूलों का खिलना 

गिलहरी का भागना 

बादलों की अठखेलियाँ 

हवाओं का रूख 

और बहुत कुछ 

जो अनायास ख़ास है


आपकी अमृता

6/11/2024

फ़र्ज़

 फ़र्ज़ 


एक तजुर्बा फ़र्ज़ का, 

एक सदी क़ुर्बानी की 

बिना दलील - रोज़ वक़ालत, 

एक ज़िंदा ख़ामोश ज़िंदगी

सुखी स्याही पूछे अधूरे अरमानों से 

कहाँ खो गया ख़्वाबों का क़िला 

जहाँ कई चाँद थे सरे आसमाँ ?

अब क़र्ज़ के बाज़ार में 

सब हैं तोलते-मोलते 

कभी किश्तों में बाटें रिश्तें, 

कभी रिश्तों में किस्तें 

क्या क्या अरमानों से सजाया था 

ये सपनों का जहाँ 

पिरोई थीं इनमें कभी मैंने 

गुलाबों की पंखुड़ियाँ 

अब फ़र्ज़ के तले कहीं पड़ीं हैं 

मेरी परछाइयाँ 


आपकी अमृता 

23 सितम्बर, 2024

लट्टू

 लट्टू


कुछ ठीक से दिखाई नहीं देता

धूआँ-धूआँ है 

एक बूढ़ा सा मकान 

दीवारों पर वक़्त की झुर्रियाँ

पलस्तर अब पपड़ी बन उखड़ती

ऊँची सी मचान के नीचे 

छत टपकती

कल रात सबकी नज़र से छुपा कर एक लट्टू रखी थी ताख पर 

उस लट्टू की रस्सी का निशाँ अभी तक उँगलियों में क़ैद है 


आँगन में कुछ गीली-गीली काई

पैर फ़िसल जाते 

एक दादी की अलमारी 

अलमारी में बंद रखी

गिलास, थाली, चम्मच

मेहमानों के लिए सब नये चमकीले बर्तन

एक संदूक़ भी था 

भारी-भरकम

अंदर झाँका था कई दफ़ा

सब काला-काला सा था 

अब आँखें की रौशनी थोड़ी कम हो गई है 

वक़्त फड़फड़ाता है 

खुली किताबों की तरह

कल रात जब नींद ने 

आँखों पर सिलाई चढ़ाई

लट्टू फिर नाच रहा था आँगन में 

दादी चूल्हानी में एक कढ़ाई पर 

सब्ज़ी की छौंक लगा रही थी


आपकी अमृता 

28 अप्रैल, दो हज़ार चौबीस

जुगनू

 जुगनू

कल देर रात दरवाज़े पर 

किसी ने दस्तक दी

सामने एक बूढ़ा जुगनू को देख 

मैं हक्का- बक्का हो गया 

अन्दर बुलाया …

बूढ़े जुगनू की लौ थोड़ी धीमी थी

रौशनी बस चीटीं समान

घर में एक रौशनदान था 

जुगनू उसकी आड़ में बैठा

हँस कर आहिस्ते से बोला - 

“मैं कई दफ़ा आया हूँ साहेब आपके घर 

नन्हीं और सोनी मुझे पकड़ कर एक शीशी में बन्द कर देती थीं। 

रिहा होने के लिए जुर्माना भी दाग देतीं थी 

हुक्म किया 

“कल अपने घर के सब लोगों को साथ लाना वरना —“

“मेरे लाख मिन्नत के बाद मुझे 

रिहायी मिल जाती 

फिर घर, खानदान, गली, मुहल्ले, 

और एक दिन तो पूरे जंगल के 

जुगनुओं की ज़मात आ गई थी 

साहेब आपके घर”

यही नहीं

एक दफ़ा तो नन्हीं और सोनी मेरा पीछा करते- करते जंगल की ओर आ गई थीं! 

बबूल - महुआ- पीपल- नीम - कटहल 

जहाँ - तहाँ मेरे घर के हर जुगनू को छुआ था उन्होंने अपनी फूल सी नाज़ुक उँगलियों से

और उस दिन मुझे ज़बरदस्ती पकड़ कर स्कूल ले जाना चाहती थी 

कहने लग गई तुम तो मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो 

कैसे धप से कीचड़ से भरे पोखर में उनका पाँव हीं धँस गया था

बड़ी कोशिश के बाद बेंग और मेंढक और कुछ बत्तख़ओं और बग़ुलों ने निकाला था नन्हीं और सोनी को

आप यहाँ नहीं थे, तब आप शहर रहते थे

शायद इसलिए हैरान हैं ये सब सुनकर”

मैं असमंजस में था

यह क्या मैं एक बूढ़े जुगनू की गूढ़ी- गथी कहानियाँ सुन रहा हूँ

परेशान होकर मैंने कहा —-

“जी बहुत अच्छा

शुक्रिया आने के लिए

कल कुछ सरकारी कर्मचारी आ रहे हैं 

जंगल का मुआयना करने के लिए 

बूढ़ा जुगनू अब रौशनदान से उड़कर

मेरे हथेली पर आ बैठा

कहा बेटा, पिछले महीने दस हज़ार पेड़ काट दिए गये

जंगल के निज़ाम का ऐलान था

कि ये मामूली जंगल नहीं 

यहाँ बेशुमार कोयला के खदान हैं

कुछ जंगल के मूलनिवासी थे 

आंदोलन किया, जुलूस निकाला, धरना भी 

मैं भी आया था अपने पूरे परिवार के साथ 

क्योंकि जब जंगल हमारा है 

तो क़ायदा - क़ानून भी हमारा हो

पर निज़ाम और सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच 

क्या जुगनुओं की जुर्रत और 

क्या मूलनिवासियों की औक़ात

निज़ाम ने हमारी एक  सुनी

उल्टा हमारी स्वागत में कुछ बन्दूक कुछ गोलियाँ चली

नन्हीं और सोनी को आप तब शहर ले गये थे

ख़ैर 

सोचा कि नन्हीं और सोनी को ये बात बता दें आप

की अब भूल के भी कभी वो यहाँ ना आएँ

ना बबूल - 

ना महुआ- 

ना पीपल- 

ना नीम - 

और ना हीं कटहल - 


ना पोखर

ना झींगुर

ना बेंग

ना मेंढक


ना एक भी बग़ुला और बत्तख़


अब यहाँ दिन नहीं होती 

कि अब यहाँ 

सिर्फ़ रात है राख़ है 

सारा जंगल अब कोयले का पहाड़ है 


आपको ताज्ज़ुब होगा कि 

मैं जुगनुओं के क़ौम की आख़िरी निशानी हूँ


नन्हीं और सोनी से कहना ……..

जुगनुओं के बारे में 

कविता और कहानियाँ ज़रूर लीखें

लिखें कि एक जमाना था 

जब जुगनू जगमगाते थे 

रात भर घूमते-चमकते थे

अपनी लौ से गुलशन गुलज़ार 

और जंगल रखते थे 

कोरे काग़ज़ पर 

ख़ूब सजाना और बनाना

एक सूरज, 

फिर जंगल, नदी, पहाड़

अनमने काले बादल

बरगद, महुआ, नीम, कटहल और 

ज़रूर बनाना पीपल

बच्चों फिर बनाना

तोता सुगापंखी

नीलकण्ठ और कोयल 

और साथ में दो दर्जन सफ़ेद क़बूतर


नीचे एक पोखर, 

पोखर में कुछ टरटराते बेंग 

और छोटी छोटी मछलियाँ

अपने धुन में तैरती, नाचती

तुम बनाना बग़ुला 

और प्यारे प्यारे बत्तख़


खींच देना यूँही औने - पौने काले जंगल और हज़ारओं जुगनुओं से रौशन 

सुनहरी जगमगाती - झिलमिलाती रात


बस बेटा अब चलता हूँ 


इस बूढ़े जुगनू की यही है

आख़िरी दर्खास्त

आने वालीं नस्लें रखें हमें 

यादों और ख़्वाबों में आबाद ……


आपकी अमृता

20 अप्रैल, 2024

मेरी प्यारी Massi!

 मेरी प्यारी Massi! 

सूरज जैसे चमकना

बादल बन जाना

और 

हवाओं में ख़ुशबू बन कर 

मंद मंद घुल जाना

कभी मन करे तो 

नदी बन जाना

लहरों के साथ 

बेफिक्र होकर 

बिना वजह

बह जाना

जहाँ मन करे

फिर कभी, एक दिन यूँ करना 

तुम, 

पेड़ बन जाना 

जड़ें ज़मीन में घुसा देना 

और फलों में लद जाना

कभी हमारी याद आए तो 

जाना रसोई घर 

हम सब मिलेंगे 

वहीं - कहीं

बरनी , छोलनी, कढ़ाई और हँड़िया में 

मूढ़ी की कटोरी हाथ में लिए

कुएँ पर 

फिर हँसेंगे

ठहाके मार कर 

नानी के काठ की अलमारी से फिर दो मुठ्ठी बिकाज़ी भुजिया लेकर भाग जाएँगे 

 हमारे नन्हें पैर से छत पर ❤️

तुम्हारी अमृता

16/04/2024

सवाल

सवाल


सवाल ज़ख़्म है, टीस है, दर्द भी 

सवाल सोच है, बारूद है, बम भी 


सवाल आँधी है, तूफ़ाँ है, ज़लज़ला भी 

सवाल हवा है, समंदर है, आसमाँ भी 


सवाल हक़ीक़त पर इल्ज़ाम है, ज़ालिम है, मुज़रिम भी 

सवाल ख़्वाब है, उसूल है, तहज़ीब भी


सवाल गुनाह है, गवाह है, क़ातिल भी

सवाल इन्साफ़ है, हक़ है, ज़ंग भी 


सवाल जात है, क़ौम है, मज़हब भी 

सवाल जड़ है, ज़मीन है, जंगल भी 


सवाल सुकरात है, मार्क्स है, लेनिन भी 

सवाल भगत है, जवाहर है, अंबेडकर भी 


सवाल गाँव है, बस्ती है, कूचे भी 

सवाल बुलडोज़र है, मलबा है, हाथरस भी 


सवाल न्याय है, सत्य है, अहिंसा भी

सवाल नानक है, गाँधी है, बुद्ध भी


सवाल पेड़ है, धूप है, पानी भी 

सवाल शिक्षा है, भूख़ है, अस्पताल भी 


सवाल ख़ेत-खलिहान है, मकान भी 

सवाल सरकारी योजनाएँ है, रोटी है, राशन भी 


सवाल अल्लाह है, येसु है, राम भी 

सवाल सहूलियत है सियासत की और कुर्सियों की


सवाल गरीबों, बेकसों, बेसहारों की 

सवाल चीथड़ों की और शहंशाही ख़ज़ानो की


सवाल नफ़रती, ज़ुल्मी, धर्म के ढेकेदारों की 

सवाल क़ुर्बान जवानों की, वीराँ गुलशन में  गुलाबों और जज़्बातों की 


सवाल जिन्दा उमंगों की, तड़पती तिलमिलाती बग़ावतों की

सवाल रूह है हमारी, हदस में लिपटी ज़िस्म की 


सवाल नसों में खौलते ख़ून से, उफनती साँसों से

सवाल सदियों की ख़ामोश आवाज़ों से, ज़बानों से 


सवाल अमन - आशा भरी, इंसानियत की 

सवाल सख़्त- ज़िद्दी और इंक़लाबी भी 


चलो अब हम अपने ये

सारे मनहूस, बदहवास, 

सरदर्द से सवालों को 

एक संदूक़ में भरकर, 

दफ़्न कर दें तहख़ानों में 


सुना है, कल सुबह 

रेशमी लिबास ओढ़े

लाल क़िले से 

शहंशाह फिर फहराएँगे

जवाबों का जश्न


आपकी अमृता 

चार अप्रैल, दो हज़ार चौबीस

(04/04/2024)