Thursday, 27 February 2025

बचपन

 बचपन 

उन्मुक्त, मस्ती में घूमते 

दौड़ते, औंधे मुँह गिरते 

भागते, पेड़ों पर चढ़ जाते 

चींटी पकड़ते 

शीशी में मक्खी फँसाते 

घूमते - घामते 

पापड़ और गेहूँ सुखाते 

तड़के सुबह, कचौड़ी-जलेबी खाते 

चाँपा नल के ठंडे पानी से, पूरे जेठ नहाते 

टपकती छत के नीचे तसला रखते 

और टूटी बाल्टी में, भादो भरते 

चार- पाँच आने लिए गलियों में फिरते 

खट्टे - मीठे बेर को दाँतो तले मसलते 

फिर चौकीं के नीचे घुस जाते 

पके हुए आम एक - एक कर चुनते 

और पूरी दोपहर, आम की गुढ़ली चूसते 

कुएँ पर रखी मिट्टी से बर्तन लीपते 

और सुनहरे- रंगीन मेले में गुम हो जाते 

नानी की टूटी चूड़ियों से दीवार सजाते 

बचपन ……

हमारे टूटे मन को, चुम्बक से चिपकाते 

कभी आसरा, कभी रास्ता दे जाते 

हमें ख़ुद को ख़ुद से रोज़ बचाते


आपकी अमृता

28 फरवरी, 2025


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