Saturday, 8 February 2025

जुगनू

 जुगनू

कल देर रात दरवाज़े पर 

किसी ने दस्तक दी

सामने एक बूढ़ा जुगनू को देख 

मैं हक्का- बक्का हो गया 

अन्दर बुलाया …

बूढ़े जुगनू की लौ थोड़ी धीमी थी

रौशनी बस चीटीं समान

घर में एक रौशनदान था 

जुगनू उसकी आड़ में बैठा

हँस कर आहिस्ते से बोला - 

“मैं कई दफ़ा आया हूँ साहेब आपके घर 

नन्हीं और सोनी मुझे पकड़ कर एक शीशी में बन्द कर देती थीं। 

रिहा होने के लिए जुर्माना भी दाग देतीं थी 

हुक्म किया 

“कल अपने घर के सब लोगों को साथ लाना वरना —“

“मेरे लाख मिन्नत के बाद मुझे 

रिहायी मिल जाती 

फिर घर, खानदान, गली, मुहल्ले, 

और एक दिन तो पूरे जंगल के 

जुगनुओं की ज़मात आ गई थी 

साहेब आपके घर”

यही नहीं

एक दफ़ा तो नन्हीं और सोनी मेरा पीछा करते- करते जंगल की ओर आ गई थीं! 

बबूल - महुआ- पीपल- नीम - कटहल 

जहाँ - तहाँ मेरे घर के हर जुगनू को छुआ था उन्होंने अपनी फूल सी नाज़ुक उँगलियों से

और उस दिन मुझे ज़बरदस्ती पकड़ कर स्कूल ले जाना चाहती थी 

कहने लग गई तुम तो मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो 

कैसे धप से कीचड़ से भरे पोखर में उनका पाँव हीं धँस गया था

बड़ी कोशिश के बाद बेंग और मेंढक और कुछ बत्तख़ओं और बग़ुलों ने निकाला था नन्हीं और सोनी को

आप यहाँ नहीं थे, तब आप शहर रहते थे

शायद इसलिए हैरान हैं ये सब सुनकर”

मैं असमंजस में था

यह क्या मैं एक बूढ़े जुगनू की गूढ़ी- गथी कहानियाँ सुन रहा हूँ

परेशान होकर मैंने कहा —-

“जी बहुत अच्छा

शुक्रिया आने के लिए

कल कुछ सरकारी कर्मचारी आ रहे हैं 

जंगल का मुआयना करने के लिए 

बूढ़ा जुगनू अब रौशनदान से उड़कर

मेरे हथेली पर आ बैठा

कहा बेटा, पिछले महीने दस हज़ार पेड़ काट दिए गये

जंगल के निज़ाम का ऐलान था

कि ये मामूली जंगल नहीं 

यहाँ बेशुमार कोयला के खदान हैं

कुछ जंगल के मूलनिवासी थे 

आंदोलन किया, जुलूस निकाला, धरना भी 

मैं भी आया था अपने पूरे परिवार के साथ 

क्योंकि जब जंगल हमारा है 

तो क़ायदा - क़ानून भी हमारा हो

पर निज़ाम और सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच 

क्या जुगनुओं की जुर्रत और 

क्या मूलनिवासियों की औक़ात

निज़ाम ने हमारी एक  सुनी

उल्टा हमारी स्वागत में कुछ बन्दूक कुछ गोलियाँ चली

नन्हीं और सोनी को आप तब शहर ले गये थे

ख़ैर 

सोचा कि नन्हीं और सोनी को ये बात बता दें आप

की अब भूल के भी कभी वो यहाँ ना आएँ

ना बबूल - 

ना महुआ- 

ना पीपल- 

ना नीम - 

और ना हीं कटहल - 


ना पोखर

ना झींगुर

ना बेंग

ना मेंढक


ना एक भी बग़ुला और बत्तख़


अब यहाँ दिन नहीं होती 

कि अब यहाँ 

सिर्फ़ रात है राख़ है 

सारा जंगल अब कोयले का पहाड़ है 


आपको ताज्ज़ुब होगा कि 

मैं जुगनुओं के क़ौम की आख़िरी निशानी हूँ


नन्हीं और सोनी से कहना ……..

जुगनुओं के बारे में 

कविता और कहानियाँ ज़रूर लीखें

लिखें कि एक जमाना था 

जब जुगनू जगमगाते थे 

रात भर घूमते-चमकते थे

अपनी लौ से गुलशन गुलज़ार 

और जंगल रखते थे 

कोरे काग़ज़ पर 

ख़ूब सजाना और बनाना

एक सूरज, 

फिर जंगल, नदी, पहाड़

अनमने काले बादल

बरगद, महुआ, नीम, कटहल और 

ज़रूर बनाना पीपल

बच्चों फिर बनाना

तोता सुगापंखी

नीलकण्ठ और कोयल 

और साथ में दो दर्जन सफ़ेद क़बूतर


नीचे एक पोखर, 

पोखर में कुछ टरटराते बेंग 

और छोटी छोटी मछलियाँ

अपने धुन में तैरती, नाचती

तुम बनाना बग़ुला 

और प्यारे प्यारे बत्तख़


खींच देना यूँही औने - पौने काले जंगल और हज़ारओं जुगनुओं से रौशन 

सुनहरी जगमगाती - झिलमिलाती रात


बस बेटा अब चलता हूँ 


इस बूढ़े जुगनू की यही है

आख़िरी दर्खास्त

आने वालीं नस्लें रखें हमें 

यादों और ख़्वाबों में आबाद ……


आपकी अमृता

20 अप्रैल, 2024

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