Saturday, 8 February 2025

लट्टू

 लट्टू


कुछ ठीक से दिखाई नहीं देता

धूआँ-धूआँ है 

एक बूढ़ा सा मकान 

दीवारों पर वक़्त की झुर्रियाँ

पलस्तर अब पपड़ी बन उखड़ती

ऊँची सी मचान के नीचे 

छत टपकती

कल रात सबकी नज़र से छुपा कर एक लट्टू रखी थी ताख पर 

उस लट्टू की रस्सी का निशाँ अभी तक उँगलियों में क़ैद है 


आँगन में कुछ गीली-गीली काई

पैर फ़िसल जाते 

एक दादी की अलमारी 

अलमारी में बंद रखी

गिलास, थाली, चम्मच

मेहमानों के लिए सब नये चमकीले बर्तन

एक संदूक़ भी था 

भारी-भरकम

अंदर झाँका था कई दफ़ा

सब काला-काला सा था 

अब आँखें की रौशनी थोड़ी कम हो गई है 

वक़्त फड़फड़ाता है 

खुली किताबों की तरह

कल रात जब नींद ने 

आँखों पर सिलाई चढ़ाई

लट्टू फिर नाच रहा था आँगन में 

दादी चूल्हानी में एक कढ़ाई पर 

सब्ज़ी की छौंक लगा रही थी


आपकी अमृता 

28 अप्रैल, दो हज़ार चौबीस

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